'यह ईश्वर में आस्था ही है जो हमें उपासना स्थलों के निर्माण के लिए प्रेरित करती है, भले ही उनमें देव प्रतिमा हो, न हो। यह निर्माण कितनी प्रक्रियाओं से गुजर कर पूरा होता है और इनमें कितने लोगों का श्रम निवेश होता है।
नए निर्माण के साथ पुरानी निर्मितियों का जीर्णोद्धार भी चलता रहता है। ईंट, सीमेंट, संगमरमर, ग्रेनाइट, पत्थर, बालू, सोना, चांदी, तांबा कितनी ही वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है। खदानों में काम चलता है।कारखानों में माल बनता है, भराई और लदान होता है, परिवहन के साधन लगते हैं, बड़े-छोटे मालवाहकों के चक्के घूमते हैं; बिजली-टेलीफोन, पानी का इंतजाम होता है, फूलमाला, फूल, चादर, ध्वजा, पताका, पोशाक, घंटे-घड़ि़याल, दीपदान, आरती, लोबान, मोमबत्ती, घी, तेल, सब कुछ की जरूरत पड़ती है।
इसमें लाखों लोगों को रोजगार की प्राप्ति होती है। खदान मजदूर से लेकर ट्रक चालक तक, पंडे-पुजारी से लेकर याचक तक के जीवनयापन में इनकी महती भूमिका से भला कौन इंकार करेगा? ये जो सावन में लाखों लोग कांवड़ यात्रा पर निकल पड़ते हैं, उनसे रोजगार के अस्थायी ही सही, लेकिन कितने नए अवसर सृजित होते हैं। पकौड़ा इकॉनामी का ये अभिन्न अंग हैं।'
(देशबंधु में 3 अक्टूबर 2019 को प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2019/